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Name Of Post : Supreme Court Big Decision on Cheque Bounce Case: समझौते को दी प्राथमिकता, हाई कोर्ट का फैसला रद्द

Supreme Court Big Decision on Cheque Bounce Case: समझौते को दी प्राथमिकता, हाई कोर्ट का फैसला रद्द

 

🏛️ सुप्रीम कोर्ट का बड़ा फैसला: चेक बाउंस मामलों में समझौते को दी प्राथमिकता

आज के डिजिटल युग में भले ही अधिकांश लेनदेन ऑनलाइन माध्यमों से होने लगे हैं, लेकिन व्यापार और बड़े वित्तीय लेनदेन में अब भी चेक का उपयोग एक भरोसेमंद तरीका माना जाता है। चेक एक कानूनी दस्तावेज होता है जो भुगतान का लिखित प्रमाण देता है। लेकिन यदि किसी कारणवश चेक बाउंस हो जाता है, तो यह न केवल आर्थिक नुकसान बल्कि कानूनी परेशानी का भी कारण बन जाता है।




💡 चेक बाउंस क्या है?

चेक बाउंस तब होता है जब बैंक भुगतान करने से इनकार कर देता है और चेक वापस कर देता है। इसके प्रमुख कारण हैं —

  • खाते में पर्याप्त धनराशि का न होना

  • गलत हस्ताक्षर या हस्ताक्षर का मेल न खाना

  • तारीख गलत होना या राशि में त्रुटि

  • चेक की वैधता समाप्त हो जाना

  • खाता बंद हो जाना या भुगतान रोक दिया जाना


⚖️ कानूनी प्रावधान: धारा 138, परक्राम्य लिखत अधिनियम

भारतीय कानून के अनुसार, धारा 138 के तहत चेक बाउंस एक दंडनीय अपराध है।
यदि कोई व्यक्ति जानबूझकर अपर्याप्त राशि के साथ चेक जारी करता है, तो उसे —

  • दो वर्ष तक की सजा, या

  • जुर्माना, या

  • दोनों हो सकते हैं।

इस कानून का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि लोग चेक जारी करते समय वित्तीय अनुशासन और जिम्मेदारी का पालन करें।


⚖️ सुप्रीम कोर्ट का हालिया फैसला (11 जुलाई 2025)

सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक निर्णय में कहा कि —

“जब दोनों पक्ष आपसी समझौते से विवाद सुलझा लेते हैं और शिकायतकर्ता को उसकी राशि वापस मिल जाती है, तो दंडात्मक कार्रवाई की बजाय समझौते को प्राथमिकता दी जानी चाहिए।”

यह फैसला जस्टिस सुधांशु धूलिया और जस्टिस ए. अमानुल्लाह की पीठ ने पी. कुमारसामी बनाम सुब्रमण्यम केस में सुनाया।


📜 मामले का विवरण

  • वर्ष 2006 में पी. कुमारसामी ने सुब्रमण्यम से ₹5.25 लाख उधार लिए और उसी राशि का चेक दिया।

  • बैंक ने चेक अपर्याप्त राशि के कारण डिशॉनर कर दिया।

  • सुब्रमण्यम ने कोर्ट में शिकायत दर्ज कराई।

  • निचली अदालत ने कुमारसामी को 1 वर्ष की सजा दी।

  • अपीलीय अदालत ने उन्हें बरी कर दिया।

  • हाई कोर्ट ने फिर से सजा बहाल कर दी।

  • लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि चूंकि दोनों पक्षों में समझौता हो गया है और पैसा चुका दिया गया है, इसलिए सजा का कोई औचित्य नहीं।


⚖️ सुप्रीम कोर्ट की प्रमुख टिप्पणियां

  1. चेक बाउंस कोई गंभीर आपराधिक अपराध नहीं, बल्कि नियामक (Regulatory) अपराध है।

  2. इसका उद्देश्य वित्तीय अनुशासन बनाए रखना है, न कि लोगों को जेल भेजना।

  3. जब समझौता हो जाए और शिकायतकर्ता को उसकी राशि मिल जाए, तो मामले को समाप्त कर देना न्यायसंगत है।

  4. अदालतों को ऐसे मामलों में समझौते और सुलह को बढ़ावा देना चाहिए।


⚖️ लंबित मामलों पर सुप्रीम कोर्ट की चिंता

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि देशभर में लाखों चेक बाउंस केस लंबित हैं, जिससे

  • न्यायिक प्रणाली पर बोझ,

  • समय और धन की बर्बादी,

  • और न्याय में देरी होती है।

अदालत ने निर्देश दिया कि जब भी संभव हो, ऐसे मामलों में समझौता आधारित निपटारा (Settlement) को प्रोत्साहन दिया जाए।


🌍 फैसले का व्यापक प्रभाव

  • यह फैसला देशभर के हजारों चेक बाउंस मामलों पर असर डालेगा।

  • अदालतों का कार्यभार कम होगा।

  • व्यापारिक समुदाय को राहत मिलेगी, क्योंकि अब सुलह के रास्ते खुले हैं।

  • यह दृष्टिकोण व्यावहारिक और मानवीय है — न्याय का उद्देश्य केवल सजा देना नहीं बल्कि पीड़ित को राहत देना भी है।


🧾 चेक जारी करते समय जरूरी सावधानियां

  1. खाते में पर्याप्त राशि सुनिश्चित करें।

  2. चेक पर सही तारीख, राशि और हस्ताक्षर करें।

  3. राशि को अंकों और शब्दों दोनों में सही लिखें

  4. खाली चेक किसी को न दें।

  5. यदि चेक बाउंस हो जाए, तो 15 दिनों के भीतर भुगतान या समझौता करें।

  6. कानूनी नोटिस को नजरअंदाज न करें।


🔍 निष्कर्ष

सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला स्पष्ट करता है कि —

“न्याय केवल दंड देने का साधन नहीं है, बल्कि शांति और समाधान का मार्ग है।”

जब दोनों पक्ष आपसी सहमति से विवाद सुलझा लें, तो अदालतों को ऐसे मामलों को समझौते के आधार पर समाप्त करना चाहिए।
इससे न केवल न्याय प्रणाली का बोझ घटेगा, बल्कि लोगों में विश्वास और जिम्मेदारी भी बढ़ेगी।


⚠️ Disclaimer

यह लेख केवल सामान्य जानकारी और कानूनी जागरूकता के उद्देश्य से तैयार किया गया है।
किसी भी कानूनी मामले में विशिष्ट सलाह के लिए योग्य वकील या कानूनी सलाहकार से संपर्क करें।
प्रत्येक मामला अपनी परिस्थितियों के अनुसार अलग होता है, इसलिए अदालत का निर्णय भी भिन्न हो सकता है